Moral Story True Friendship : अमर की एक कपड़े की दुकान थी। शहर के सबसे महंगे बाजार में उसकी दुकान पर हमेशा भीड़ लगी रहती थी। उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। महंगी गाड़ी।
आलीशान बंगला जिसमें वह अपने परिवार के साथ रहता था। परिवार में उसकी पत्नी रेखा और उसके माता पिता थे।
एक दिन अमर अपनी गाड़ी में पत्नी के साथ घूमने जा रहा था। वह एक हिल स्टेशन पर पहुंच जाता है। होटल में उसका कमरा बुक था। वह काउंटर पर पहुंचता है और कमरे में उसकी बुकिंग के बारे में पूछता है।
अमर काउंटर रजिस्टर में साईन करता है तभी मैंनेजर एक वेटर को बुलाता है। मैंनेजर उससे कहता है – ‘‘साहब का सामान तीसरी मंजिल पर कमरा नम्बर तीन सौ छः में रख आओ।’’
वेटर सामान लेकर आगे आगे चल देता है। अमर और रेखा दोंनो उसके पीछे पीछे चल देते हैं लिफ्ट से होते हुए वे सभी कमरे में पहुंच जाते हैं।
कमरे में सामान रख कर जब वेटर वापस जाने लगता है तो अमर उससे कहता है – ‘‘सुनों ये लो टिप।’’
अमर सौ रुपये निकाल कर वेटर की ओर बढ़ा देता है। लेकिन यह क्या वेटर पैसे न लेकर वापस जाने लगता है। अमर उसे रोकता है। अमर उससे कहता है – ‘‘अरे ये हम अपनी खुशी से दे रहे हैं रख लो तुम्हारे मैंनेजर से हम कुछ नहीं कहेंगे।’’
वेटर चुपचाप पैसे अपनी जेब में रख लेता है। तभी अमर उसे रोकता है। अमर कहता है – ‘‘तुम राकेश हो न।’’
वेटर ने कुछ नहीं बोला वह चुपचाप वहां से चला गया। तभी रेखा अमर के पास आई और बोली – ‘‘क्या बात है आप कुछ परेशान लग रहे हो और वेटर से क्या बात कर रहे थे।’’
अमर ने कहा – ‘‘रेखा यह मेरे बचपन का दोस्त था, लेकिन अब मुझे पहचान नहीं रहा है मैंने तो इसे पहचान लिया है। तुम यहीं रुको मैं अभी इसके बारे में पता करके आता हूं।’’
अमर नीचे काउंटर पर पहुंच कर राकेश के बारे में पता करता है तो उसे पता लगता है कि वह तो अभी ड्यूटी खत्म करके घर चला गया। कल सुबह आयेगा। राकेश ने दूसरे वेटरों से उसके घर के बारे में पूछा लेकिन किसी को उसका घर मालूम नहीं था।
अमर अपने कमरे में वापस आ जाता है। रेखा उससे पूछती है तो अमर कहता है – ‘‘रेख हम दोंनो बचपन के दोस्त हैं। राकेश पढ़ने में बहुत तेज था। लेकिन फिर इसके पिता पर बहुत कर्ज हो गया था। इसके पिता अपना घर बेच कर कर्ज चुका कर अपने परिवार के साथ कहीं चले गये। राकेश ने मेरी बहुत मदद की है। अगर वह नहीं होता तो मैं यहां तक नहीं पहुंच पाता।’’
अगले दिन राकेश काम पर नहीं आया। राकेश के घर का पता भी नहीं लग पा रहा था। अमर और रेखा घूमने निकले लेकिन अमर का मन किसी चीज में नहीं लग रहा था। वह हर समय राकेश के बारे में सोच रहा था।
अगले दिन उनका होटल में आखिरी दिन था। होटल छोड़ कर अमर ने सामने ही दूसरे होटल में कमरा ले लिया। रेखा के पूछने पर उसने बताया – ‘‘रेखा राकेश अपनी गरीबी के कारण मुझसे नहीं मिलना चाह रहा है इसलिये ही मैंने होटल बदल लिया है उसे पता होगा कि हम होटल कब छोड़ने वाले हैं।’’
सामने होटल में बालकॉनी से अमर पहले वाले होटल में नजर रख रहा था। चौथे दिन राकेश काम पर आया। अमर ने उसे देखा और वह तुरंत होटल में पहुंच गया।
वहां जाकर उसने राकेश को रोका और पूछा – ‘‘भाई मुझसे ऐसी क्या गलती हो गई जो तू मुझसे बच कर भाग रहा है।’’
अचानक अमर को अपने सामने देख कर राकेश सकपका गया फिर वह संभल कर बोला – ‘‘ऐसी बात नहीं है। भाई तुम कहां और मैं कहां। अब तुम्हारा मेरा कहां मेल है।’’
अमर ने कहा – ‘‘मुझे कुछ नहीं पता मुझे अपने घर लेकर चल।’’
अमर के बहुत जिद करने पर राकेश ने अपने मैंनेजर से बात की और अमर को लेकर अपने घर पहुंच गया। घर क्या एक छोटी सी झोंपड़ी सी थी। उसमें उसकी मम्मी और उसकी पत्नी थी। जो कि फटे हुए कपड़े पहने थीं पास ही में एक बच्चा खेल रहा था।
राकेश को देख कर उसकी पत्नी बोली – ‘‘अरे आप आज भी वापस आ गये क्या वो आपके दो अभी वहीं हैं जिनसे आप बचने की कोशिश कर रहे थे।’’
अमर पीछे ही खड़ा था वह बोला – ‘‘भाभी जी मैं ही वो दोस्त हूं जिससे यह बच रहा था। क्या मैं इतना घट्यिा इंसान हूं। क्यों माजी अपने भोला बेटे को भूल गईं।’’
राकेश की बूढ़ी मां ने चश्मा लगा कर ध्यान से देखा तो उनकी आंखों से आंसू निकल आये -‘‘अरे बेटा मैं और राकेश तुझे हमेशा याद करते हैं। कभी कभी अखबार में तेरी दुकान का इश्तहार छपता है उसमें तेरी फोटो देख कर ये तुझे बहुत याद करता है।’’
अमर ने कहा – ‘‘अरे तुम लोग इतनी परेशानी में हो क्यों भाई तू मुझसे मिलने क्यों नहीं आया।’’
राकेश ने अपने आंसू पौंछते हुए कहा – ‘‘भाई मुझे लगा तू मुझ गरीब को पहचानेगा या नहीं वहां कहीं तूने मेरी बेज्जती कर दी तो मेरा जीना मुश्किल हो जायेगा।’’
तभी राकेश की पत्नी बोली – ‘‘भैया इनकी कोई गलती नहीं है। आप ही देखो हम किस हाल में हैं। ऐसे में तो अपने भी मुंह मोड़ जाते हैं। इन्हें इसी बात का डर था। खैर आप बैठो मैं आपके लिये चाय बनाती हूं।’’
अमर बोला – ‘‘चल अपना सामान बांध ले मेरे साथ चल दोंनो भाई मिल कर दुकान चलायेंगे। मेरी तीन दुकानें हैं जो मुझसे नहीं संभल रही हैं।’’
राकेश ने कहा – ‘‘नहीं भाई मैं ठीक हूं तुझे मैं आज भी याद हूं यही बहुत है।’’
अमर ने उसे डांटते हुए कहा – ‘‘तेरा तो मुझे पता नहीं लेकिन अपनी मां और भाभी को मैं इस हाल में नहीं देख सकता मैं इन्हें ले जा रहा हूं तेरा मन हो तो आ जाना।’’
राकेश मना करता रहा लेकिन अमर नहीं माना वह बोला – ‘‘जानता है तूने बचपन में मेरी कितनी मदद की है मैं कितना गरीब था। मेरे पास किताबें खरीदने के पैसे नहीं होते थे। तूने मुझे अपनी किताबें दी और स्कूल में इसी बार पर तेरी कितनी पिटाई होती थी। आज मैं जो कुछ भी हूं तेरी वजह से हूं। वैसे बाबूजी कहां गये।’’
राकेश बोला – ‘‘भाई वो तो गांव छोड़ने के छः महीने बाद ही खत्म हो गये। उन्हें लग रहा था। उनकी वजह से उनका परिवार मुसीबत में है। तब से हम ऐसे ही गुजर बसर कर रहे हैं।’’
अमर उन्हें सामान बांधने का बोल कर वापस होटल आया और रेखा को सारी बात बताई। रेखा बहुत खुश हुई उसका पति अपने दोस्त की मदद कर रहा है। दोंनो ने जाकर राकेश का सारा सामान ट्रक में चढ़वाया और उन्हें अपने घर ले आये।
वहां दोंनो भाईयों की तरह रहने लगे। राकेश अब धीरे धीरे काम सीखने लगा। अमर ने एक दुकान की पूरी जिम्मेदारी राकेश को सौंप दी थी।
इस तरह एक दोस्त ने अपने दोस्त का कर्ज चुकाया।
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