॥ दोहा ॥
आदौ राम तपोवनादि गमनं हत्वाह् मृगा काञ्चनं
वैदेही हरणं जटायु मरणं सुग्रीव संभाषणं
बाली निर्दलं समुद्र तरणं लङ्कापुरी दाहनम्
पश्चद्रावनं कुम्भकर्णं हननं एतद्धि रामायणं
॥ चौपाई ॥
श्री रघुबीर भक्त हितकारी ।
सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी ॥1॥
निशि दिन ध्यान धरै जो कोई ।
ता सम भक्त और नहिं होई ॥2॥
ध्यान धरे शिवजी मन माहीं ।
ब्रह्मा इन्द्र पार नहिं पाहीं ॥3॥
जय जय जय रघुनाथ कृपाला ।
सदा करो सन्तन प्रतिपाला ॥4॥
दूत तुम्हार वीर हनुमाना ।
जासु प्रभाव तिहूँ पुर जाना ॥5॥
तव भुजदण्ड प्रचण्ड कृपाला ।
रावण मारि सुरन प्रतिपाला ॥6॥
तुम अनाथ के नाथ गोसाईं ।
दीनन के हो सदा सहाई ॥7॥
ब्रह्मादिक तव पार न पावैं ।
सदा ईश तुम्हरो यश गावैं ॥8॥
चारिउ वेद भरत हैं साखी ।
तुम भक्तन की लज्जा राखी ॥9॥
गुण गावत शारद मन माहीं ।
सुरपति ताको पार न पाहीं ॥10॥
नाम तुम्हार लेत जो कोई ।
ता सम धन्य और नहिं होई ॥11॥
राम नाम है अपरम्पारा ।
चारिहु वेदन जाहि पुकारा ॥12॥
गणपति नाम तुम्हारो लीन्हों ।
तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हों ॥13॥
शेष रटत नित नाम तुम्हारा ।
महि को भार शीश पर धारा ॥14॥
फूल समान रहत सो भारा ।
पावत कोउ न तुम्हरो पारा ॥15॥
भरत नाम तुम्हरो उर धारो ।
तासों कबहुँ न रण में हारो ॥16॥
नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा ।
सुमिरत होत शत्रु कर नाशा ॥17॥
लषन तुम्हारे आज्ञाकारी ।
सदा करत सन्तन रखवारी ॥18॥
ताते रण जीते नहिं कोई ।
युद्ध जुरे यमहूँ किन होई ॥19॥
महा लक्ष्मी धर अवतारा ।
सब विधि करत पाप को छारा ॥ 20॥
सीता राम पुनीता गायो ।
भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो ॥21॥
घट सों प्रकट भई सो आई ।
जाको देखत चन्द्र लजाई ॥22॥
सो तुमरे नित पांव पलोटत ।
नवो निद्धि चरणन में लोटत ॥23॥
सिद्धि अठारह मंगल कारी ।
सो तुम पर जावै बलिहारी ॥24॥
औरहु जो अनेक प्रभुताई ।
सो सीतापति तुमहिं बनाई ॥25॥
इच्छा ते कोटिन संसारा ।
रचत न लागत पल की बारा ॥26॥
जो तुम्हरे चरनन चित लावै ।
ताको मुक्ति अवसि हो जावै ॥27॥
सुनहु राम तुम तात हमारे ।
तुमहिं भरत कुल- पूज्य प्रचारे ॥28॥
तुमहिं देव कुल देव हमारे ।
तुम गुरु देव प्राण के प्यारे ॥29॥
जो कुछ हो सो तुमहीं राजा ।
जय जय जय प्रभु राखो लाजा ॥30॥
रामा आत्मा पोषण हारे ।
जय जय जय दशरथ के प्यारे ॥31॥
जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा ।
निगुण ब्रह्म अखण्ड अनूपा ॥32॥
सत्य सत्य जय सत्य- ब्रत स्वामी ।
सत्य सनातन अन्तर्यामी ॥33॥
सत्य भजन तुम्हरो जो गावै ।
सो निश्चय चारों फल पावै ॥34॥
सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीं ।
तुमने भक्तहिं सब सिद्धि दीन्हीं ॥35॥
ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा ।
नमो नमो जय जापति भूपा ॥36॥
धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा ।
नाम तुम्हार हरत संतापा ॥37॥
सत्य शुद्ध देवन मुख गाया ।
बजी दुन्दुभी शंख बजाया ॥38॥
सत्य सत्य तुम सत्य सनातन ।
तुमहीं हो हमरे तन मन धन ॥39॥
याको पाठ करे जो कोई ।
ज्ञान प्रकट ताके उर होई ॥40॥
आवागमन मिटै तिहि केरा ।
सत्य वचन माने शिव मेरा ॥
और आस मन में जो ल्यावै ।
तुलसी दल अरु फूल चढ़ावै ॥
साग पत्र सो भोग लगावै ।
सो नर सकल सिद्धता पावै ॥
अन्त समय रघुबर पुर जाई ।
जहाँ जन्म हरि भक्त कहाई ॥
श्री हरि दास कहै अरु गावै ।
सो वैकुण्ठ धाम को पावै ॥
॥ दोहा ॥
सात दिवस जो नेम कर पाठ करे चित लाय ।
हरिदास हरिकृपा से अवसि भक्ति को पाय ॥
राम चालीसा जो पढ़े रामचरण चित लाय ।
जो इच्छा मन में करै सकल सिद्ध हो जाय ॥
Leave a Reply
View Comments