Desi Kahani Ghar Vapsi : गांव की चौपाल पर वह पुराना पीपल का पेड़ आज भी याद आता है। इस पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर न जाने कितनी दोपहरी काटी हैं।
इसी उधेड़बुन में यादों को संजोये रितेश अपने गांव पहुंच जाता है। जैसे ही कार गांव में पहुंचती है। सभी बाहर निकल कर देखने लगते हैं रितेश अपनी पत्नी के साथ अपने माता पिता से मिलने आया था।
रितेश और काव्या दोंनो लंदन में रहते थे। कई सालों से आने की सोच रहे थे लेकिन कभी टाईम ही नहीं मिल पाता था।
घर पहुंचते ही देखा पिताजी पहले की तरह अपनी आराम कुर्सी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे थे और मां रसोई में मिट्टी के चूल्हे पर रोटी सेक रही थी। दोपहर होने को थी। अपने घर के सामने कार रुकने से रितेश के पिता मधुसूदन जी खड़े होकर बाहर आ गये। रितेश और काव्या ने आगे बढ़ कर उनके पैर छुए।
अपने बेटे से मिल कर उन्हें कोई खास खुशी नहीं हुई बस एक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ उनका स्वागत किया और अंदर आने के लिये कहा। अंदर रितेश अपनी मां के पास पहुंचा अलोचना जी ने बेटे को देखा तो चूल्हे से तवा नीचे रख कर आकर उसे गले से लगा लिया। दोंनो ने मां के पैर छुए।
अलोचना जी ने कहा – ‘‘कितना कमजोर हो गया है। विदेश में कुछ खाने को नहीं मिलता है क्या?’’
यह सुनकर रितेश हसने लगा – ‘‘बस करो मां हर बार तुम यही कहती हों। वहां ये तेल घी नहीं खाया जाता। मसाले भी बहुत कम डाले जाते हैं।’’
काव्या बोली – ‘‘तभी तो हम मां के हाथ का खाना खाने आये हैं।’’
यह सुनकर रितेश बोला – ‘‘देखा मां यह इसलिये बोल रही है कि कोई काम न करना पड़े।’’
‘‘चल हट मेरी बहु से मैं काम करवाउंगी क्या? इतने सालों बाद तो तुम लोग आये हो।’’ यह कहकर अलोचना जी हसने लगीं।
अगले दिन सुबह रितेश चौपाल पर पहुंच गया वहां पहले ही कि तरह मेला लगा हुआ था। कुछ छोटे बच्चे उस चबूतरे पर खेल रहे थे। गांव के कई बुर्जुग बैठ कर बातें कर रहे थे। उनमें से कुछ हुक्का पी रहे थे।
लंदन के मुकाबले यहां का माहौल एकदम अलग था। कितना सुकून था। कोई चिंता नहीं थी सब एक दूसरे से हस हस कर बातें कर रहे थे। कमी थी तो एक चीज की नौजवान कहीं नजर नहीं आ रहे थे।
रितेश आगे बढ़ा तो एक बुर्जुग ने उसे पहचान लिया – ‘‘बेटा रितेश कब आया विदेश से?’’
‘‘चाचा कल ही आया था। आप लोगों से मिल कर बहुत अच्छा लगा।’’ कहते हुए रितेश उनके पास जाकर बैठ गया।
चाचा मेरे साथ के कोई भी नजर नहीं आ रहे। तब एक बुर्जुग ने कहा -‘‘बेटा तेरी तरह सब शहर की आंधी में उड़ गये। इस गांव में अब बूढ़े ही बचे हैं। बच्चें हैं उनके भी पिता शहर जा चुके हैं केवल त्यौहारों पर ही आते हैं।’’
यह सुनकर रितेश थोड़ा झेंप गया। उसे भी तो बड़ा शौक था शहर जाने का। उसके पिता की अच्छी खासी खेती थी। कई बीघे के खेत थे जिन पर मजदूर काम करते थे। बिना कुछ करे घर में पैसा आता रहता था। लेकिन रितेश को तो तरक्की करनी थी। शहर जाना था।
आज उसे अहसास हो रहा था, पैसों की भागदौड़ में गांव छूट गया। लेकिन क्या उस पैसे ने खुशी दी है। या सिर्फ सुख-सुविधाओं को बढ़ाने की होड़ में शामिल करके रख दिया है।
घर आया तो उसके पिता मधुसूदन जी खाना खा रहे थे – ‘‘आजा बैठ अरे सुनती हों रितेश आ गया इसका भी खाना लगा देना।’’
कुछ ही देर में काव्या रितेश का खाना लेकर आ गई रितेश पापा के पास ही चारपाई पर बैठ कर खाना खाने लगा। बाजरे की रोटी, सरसों का साग, प्याज, हरीमिर्च और साथ में अचार। इस खाने को रितेश तरस गया था।
खाना खाकर मधुसूदन जी ने कहा – ‘‘तू आराम कर मैं खेत का एक चक्कर लगा कर आता हूं।’’
उनकी बात सुनकर रितेश बोला – ‘‘चलिये मैं भी आपके साथ चलता हूं वैसे भी बहुत दिनों से अपने खेत नहीं देखे।’’
दोंनो खेतों की ओर चल देते हैं। रास्ते में मधुसूदन जी ने पूछा – ‘‘कब तक वापस जाने का विचार है।’’
रितेश बोला -‘‘क्या हुआ पापा आप कुछ परेशान दिख रहे हैं।’’
‘‘नहीं कुछ नहीं बस तुम्हें तो जाना ही है इसलिये पूछ रहा हूं। ये सब एक नाटक सा लगता है। गांव आना, खेत देखना, मां बाप से मिलना तुम्हारे जैसे बहुत से बच्चे यही करते हैं। फिर इन्हें अपने माता पिता से कोई मतलब नहीं होता। कुछ तो उनके मरने पर भी नहीं आते। आखिर हमारा कसूर क्या है?’’
रितेश चुपचाप उनकी बातें सुनता रहा उन्होंने आगे कहना शुरू किया -‘‘हमारे बुढ़ापे और मरने जीने के लिये तो गांव वाले हैं। बीमारी में पूरा गांव इकट्ठा हो जाता है। बोलने के लिये, त्यौहार मनाने के लिये सभी गांव वाले इकट्ठे हो जाते हैं। लेकिन तुम लोगों का क्या हो उन शहरों में जब तुम बूढ़े होगे और तुम्हारे बच्चे तुमसे दूर चले जायेंगे तो तुम्हारे सुख-दुःख में साथ देने वाला कोई नहीं होगा। तब तुम्हें इस गांव की कद्र समझ में आयेगी।’’
अपने पिता की बातें सुनकर रितेश का कलेजा छलनी हो चुका था। वह परेशान हो गया। आखिर लंदन जाकर भी उसने क्या हासिल कर लिया क्या यह पैसा उनका साथ देगा?’’
घर आकर रितेश ने पिजाजी, मां और काव्या को एक साथ बिठाया और कहा – ‘‘मैं अपने जीवन के अंतिम क्षण इस गांव मंे बिताना चाहता हूं इसके लिये में अपना सब कुछ समेट कर यहां आना चाहता हूं।’’
काव्या ने कहा – ‘‘यह कैसे हो सकता है यहां रखा ही क्या है?’’
रितेश बोला – ‘‘कुछ भी हो काव्या वहां हमारा अपना कोई नहीं है। यहां सब अपने हैं। बुढ़ापे में पैसे से ज्यादा अपनों के साथ की जरूरत पढ़ेगी। मैंने फैसला कर लिया है कि मैं घर वापस आउंगा। और अपने साथियों को भी लाने की कोशिश करूंगा। क्या पता मेरे इस कदम से गांव के और नौजवान भी वापस आ जायें।’’
कुछ दिन बाद रितेश और काव्या वापस लंदन गये और वहां सब कुछ बेच कर गांव वापस आ गये। रितेश ने काव्या को भी अच्छे से समझा लिया। अब रितेश खेती करता है और जो भी नौजवार छुट्ट्यिों में गांव आता उसे समझा बुझा कर गांव में रहने के प्ररित करता यही रितेश का काम था।
रितेश के पिता उसके इस कदम से बहुत खुश थे।
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