Gaaj Beej Vrat Katha : भाद्रपद शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को गाज-बीज की पूजा पूरे भारतवर्ष में श्रद्धा और भक्ति के साथ की जाती है। यह पूजा अधिकांश गृहस्थों के घर में बापू के नाम से की जाती है। बापू की पूजा वास्तव में कुल देवता की पूजा है।
इस पूजा के करने से जो स्त्रियाँ अपने कर्तव्यों का पालन न करने के कारण देवी-देवताओं के द्वारा शापित होती हैं। उनका शाप दूर हो जाता है और इसका प्रभाव उसके वंशजों पर नहीं पड़ता है। इस व्रत का विधिपूर्वक पालन करने से प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से मुक्ति मिलती है। उसके वंश का कोई भी व्यक्ति आकस्मिक दुर्घटनाओं जैसे गाज या बिजली गिरना, भूकम्प आने, आँधी-तूफान या किसी भी प्रकार के प्राकृतिक घटनाओं से बचाती है।
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इसलिए इस व्रत का पालन सभी मनुष्यों को अनिवार्य रूप से करना चाहिए, क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं से बचने का यह सबसे अच्छा व्रत है।
गाज-बीज व्रत की पूजन-विधि (Gaaj Beej Vrat Katha)
भाद्रपद शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि के दिन कच्ची रसोई बनाकर बापूदेव को भोग लगाया जाता है। फिर सब उसी प्रसाद को पाते हैं। यह प्रसाद प्रायः उन्हीं लोगों को दिया जाता है जो उस कुल या गोत्र के होते हैं।
दोपहर को बापू की पूजा के बाद लड़के की माँ दीवार में गाज-बीज की रचना करती है। एक मढ़ी बनाकर उसमें एक बालक बैठाया जाता है और दूसरा बालक वृक्ष के नीचे खड़ा दिखाया जाता है। इसको गाज-बीज की पूजा कहते हैं। पूजा के बाद गाज-बीज की कथा सुनी जाती है।
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कथा सुनने के बाद ब्राह्मणों को यथाशक्ति भोजन कराकर तथा दान देकर विदा करते समय आशीर्वाद ली जाती है। अनन्तर अल्पाहर या फलाहार कर व्रत को तोड़ा जाता है।
गाज-बीज की व्रत-कथा (Gaaj Beej Vrat Katha)
प्राचीन काल में धर्मदत्त नामका एक राजा रहता था। वह बड़ा ही धार्मिक और दयालु प्रवृत्ति का था। बहुत यज्ञ अनुष्ठान करने के बाद उसका एक पुत्र हुआ। एक दिन भाद्र शुक्ल द्वितीया को राजा का पुत्र शिकार खेलने के लिए जंगल में गया।
उसी जंगल में एक गरीब ग्वालन का लड़का गायें चरा रहा था। दैवात् बड़े जोर से वर्षा होने लगी। तब राजा का लड़का हाथी से उत्तर कर जंगल की एक मढ़ी में चला गया। उसी समय मढ़ी में गाज गिरी। जिससे मढ़ी फट गई और राजा का लड़का लापता हो गया, परन्तु उस गाय चराने वाले गरीब के लड़के को कुछ भी नहीं हुआ।
जो गरीब का लड़का गायें चराता था। उसकी माता नित्य एक रोटी गाय या बछ्यिा को खिलाती थी या किसी भूखी कुँवारी कन्या को दिया करती थी। वह लड़का जिस पेड़ के नीचे खड़ा था।
उस पर गाज अवश्य गिरती, परन्तु माता की दी हुई रोटी उस पर इस तरह छा जाती थी कि गाजवृक्ष तक पहुँच ही नहीं पाती थी। कुछ देर में वर्षा बन्द हुई और गरीब का लड़का आनन्द के साथ घर चला गया।
जब राजकुमार घर वापस नहीं आया तो राजा के सिपाही राजकुमार को खोजते हुए उसी जंगल में गये, जहाँ यह घटना घटी थी। वहाँ जिन लोगों ने यह घटना अपनी आँखों से देखी थी।
उन्होंने सिपाहियों को कह सुनाया कि गरीब का लड़का तो बच गया, परन्तु राजा का लड़का गाज गिरने से मारा गया। सिपाहियों ने यह समाचार राजा को जाकर सुनाया। राजा यह समाचार पाकर मन ही मन बड़ा दुःखी हुआ।
मैं इतना पुण्य तथा धर्म का कार्य करता हूँ फिर भी मेरा लड़का एक गाज के गिरने से मारा गया और जो गरीब स्त्री एक रोटी गाय या गरीब को खिलाया करती है। उसका लड़का केवल रोटी के बदौलत बच गया। इस चिन्ता में जब राजा का मन मलिन हो गया और वह दुःख के सागर में डूब गया। तब राजा के गुरुओं ने आकर राजा को समझाया कि आप जो पुण्यधर्म करते हैं वह अभिमान पूर्वक करते हैं। इसलिए वह क्षय होता जाता है।
अहंकार और अभिमान से किया गया दान से पुण्य की प्राप्ति नहीं होती है, किन्तु गरीब स्त्री जो कुछ दान पुण्य करती है वह श्रद्धापूर्वक करती है। श्रद्धा और प्रेम से किया गया छोटा दान भी बहुत बड़ा पुण्यदायक होता है।
राजा ने गुरु के चरणों में दण्डवत करके अपना गलती स्वीकार किया और आगे के लिए अमूल्य शिक्षा प्राप्त की। उसने प्रजा को उसी समय आज्ञा दी कि अब से प्रत्येक वर्ष आज के दिन व्रत रखकर गाज-बीज की विधिवत् पूजा किया करें।
उस दिन भाद्र मास शुक्लपक्ष की द्वितीया थी। राजा-रानी ने स्वयं विधि-विधान के साथ संकल्प-पूर्वक गाज-बीज की पूजा की। इस व्रत के प्रभाव से अपना खोया हुआ बच्चा जो मरने ही वाला था, सकुशल प्राप्त हुआ। तभी से यह गाज-बीज की पूजा लोग पूरे भारतवर्ष में बड़े ही श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाते आ रहे हैं।
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